प्रीति...

 भंवरा अकेला अपने ही आप से परेशान, 

अपनी ही आवाज से बज रहे थे उसके कान,

 गुनगुन गुनगुन एकांत में करता रहता, 

डूबा रहता अकेले में सुबह-शाम 


भंवरे की प्यास क्या , उसकी खोज क्या थी ?

वही खोज रहा था वो जिसे कहते हैं हम प्रीति ...

उसकी खोज इतनी गहरी थी, 

कि परमात्मा को भी माननी ही थी


एक पल्लवित ओंस से भरी सुबह थी, 

सुगंधित दसो दिशा झूमती हवा थी...

 कोमल कली कमल की होने लगी जवां थी ,

उसकी मोहकता और सुगंध फैली हर जगह थी...


 मोहपाश में बंधा भंवरा खुद को रोक ना सका ,

उन दोनों में भिन्नता इतनी, फिर भी वह संजोग ना चूका,

 अमृत रस कमल का भंवरे के मन में मोह सा जगा,

कमल उसकी ही प्रतीक्षा में पहले ही सो ना सका ....


वह मिलन का क्षण भी अद्भुत था ,

भंवरा थर थर, कमल आनंदित था,

सदियां बीत गई हो मानो कुछ पल में ,

प्रेम रस में भवरा ऐसे लीन था...


 यह प्रेम संबंध भंवरे के लिए इबादत का साधन था,

मगर वह बेचारा कमलों की फितरत से अनजान था ...


रात होते ही, अपनी प्रेम की पंखुड़ियां समेट लेते हैं कमल,

उनके प्रेम में जो भवरे आ फसे उन्हें लपेट लेते हैं कमल...


अपने अहंकार को समर्पित करके  भंवरा फस जरूर गया था,

उसने कठोर से कठोर लकड़ियों को चकनाचूर किया था,

 प्रेमबंधन की नाजुक पंखुड़ियां उसे क्या बांधती, 

उसने शायद कृतज्ञता के भाव से अपने को मजबूर किया था...


 बंधा रहा प्रेम के बंधनों में वो ,

कमल की हरकत से भवरा था मिटने को,

सांस आती नही थी, दम था घुटने को

 कमल को क्या फिकर, अपने में डोले वो ,

अहंकार और गुरुर से भरा रहा सोते वो....


भंवरे ने अपना आत्म सम्मान खोया ,

प्रीत क्या लगी अपना आत्मजगत खोया ,

देख कर प्रेमकारागृह जो थी मोहक पंखुड़िया,

वो अपना स्वधर्म , कुतरने ने की  आदत भुलाया...


फिर सुबह जो आयी कमल के नयन खुले,

देखा अधमरा भवरे को प्रेमके  भवन तले ,

जैसे कमल जागा भंवरा उड़ चला मनमर्जी से ,

कमल सोचता रहा यह भंवरा भी कितना स्वार्थी है...


            ......ganesh darode

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