स्वकर्म से स्वधर्म तक।

स्वकर्म से स्वधर्म तक।


 स्वकर्म से स्वधर्म तक तू चल आखरी पर्व तक 

जीवन के इस महाभारत मे तू अर्जुन नही तू कर्न बन ।


लोहे की शय्याए छोड तू तू तांबा नही सुवर्ण बन ।

क्यों समझता खुदको एक तुच्छ पर्ण 

 तू पुरा एक अरण्य बन।


 छोटो से लड़कर क्या जीतता तू बड़े से लढ़ अजिंक्य बन ,यशोगाथा तेरी 1,2 नही चली जा रही असंख्य तक।


 स्वकर्म से स्वधर्म तक तू चल आखरी पर्व तक

 जीवन के इस महाभारत मे तू अर्जुन नही तू एकलव्य बन


 छोटी छोटी कामनाए लेकर छोटा जीवन क्यों जीता तू 

इस महाजीवन के महापर्व का तू महामर्म बन।

यह वह को छोड तू तू ही अब सर्व बन 

 बांधले संकल्प का बान जब तक है त्रान तू कर जतन ,

नूतन तेरा जीवन है नूतन तेरा प्राण

 नूतन एक संकल्प लेकर तू सर्वशक्तिमान बन।


स्वकर्म से स्वधर्म तक तू चल आखरी पर्व तक,

 जीवन के इस महाभारत मे तू कृष्ण नही शकुनि बन।


पर्वत तेरा रास्ता रोकने आयेंगे अपना गुण छोडकर पत्थर से बवंडर बन,

 जीवन के सागर में जो कोई लहर तेरी नाव डुबाए अपना गुन छोडकर सुनामी भयंकर बन ।


स्वकर्म से स्वधर्म तक तू चल आखरी पर्व तक जीवन के इस रामायण में तू बाली नहीं रावण बन ।


              ~ganesh darode

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